हिन्दू भारत का निर्माण और गीता प्रेस अक्षय मुकुल की पुस्तक की समीक्षा

हालांकि संघ-गिरोह कभी भी स्वाधीनता संग्राम में शामिल नहीं रहा, पर आज तक वह हिंदुस्तान के स्वाधीनता संग्राम की विरासत पर दावा करने के लिए छटपटाता रहता है. उनके पास अपने ऐसे प्रतीक नदारद हैं. पर उसी हलचल भरे दौर के सांस्कृतिक-सामाजिक उतार-चढ़ाव और स्वाधीनता आंदोलन की कमजोरियों के बीच न सिर्फ उनकी विचारधारा को पोषण हासिल हुआ, बल्कि नाना प्रकार के संगठनों, आंदोलनों और संस्थाओं  के माध्यम से उनकी विचारधारा और संघनित हुई. गीता प्रेस इन्हीं संगठनों में से एक था. 


अक्षय मुकुल की यह किताब उस गीता प्रेस (स्थापना 1926) की दिलचस्प कहानी बयान करती है जिसने ‘कल्याण’ (हिन्दीद्ध और ‘कल्याण कल्पद्रुम’ (अंग्रेजीद्ध जैसी पत्रिकाओं के सहारे मध्यवर्गीय हिन्दू चेतना, खासकर उत्तर भारत में, को गढ़ा. आज ‘कल्याण’ की मासिक वितरण संख्या दो लाख और ‘कल्याण कल्पद्रुम’ की एक लाख है. ‘गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ हिन्दू इंडिया’ नाम की यह किताब हमें ‘हिंदुत्व’ परियोजना की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक जड़ों, शुरूआती आधारों,  केंद्रीय एजेंडे और जन-चेतना में इसके फैलाव के बारे में हमारी समझ विकसित करती है.


भारत में हिन्दू कभी भी ‘अपने लिए’/ ‘स्वचेतस’ एक समुदाय की तरह नहीं रहे. विशिष्ट राजनैतिक प्रक्रियाओं से गुजरकर भारत में ‘हिन्दू’ एक सामाजिक और राजनीतिक समुदाय के रूप में उभरा. हिन्दुत्व की इस राजनीतिक परियोजना ने भारतीय राष्ट्र की जगह खास हिन्दू राष्ट्र को परिकल्पित और निर्मित किया. गीता प्रेस इसी परियोजना का आवयविक हिस्सा था.


गीता प्रेस ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ की विराट परियोजना के लिए ‘सनातन धर्म’ के झंडाबरदारों और सुधारवादी संस्थाओं के बीच के संघर्ष के समाहार का साधन था. लेखक पुख्ता और प्रभावकारी तरीके से हमें बताते हैं कि गीता प्रेस कैसे ‘एकरूप, लोकप्रिय भक्ति उन्मुख ब्राह्मणवादी हिंदूवाद’ से आगे बढ़कर 40 के दशक में  सांप्रदायिक घृणा और मुस्लिम-भर्त्सना तक पहुंचा, कैसे वह हिन्दू कोड बिल के खिलाफ अभियान का वाहक बना और कैसे स्वातंत्रोत्तर भारत में राम राज्य परिषद, हिन्दू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद के तमाम उन्मादी अभियानों का संगी बना.


अब तक न खंगााले गए गीता प्रेस के अभिलेखागारों और हनुमान प्रसाद पोद्दार के निजी दस्तावेजों को आधार बनाती मुकुल की इस किताब से न सिर्फ अकादमिक दुनिया, बल्कि कार्यकर्ता और सामान्य पाठक भी लाभ उठा सकते हैं. कारण यह कि सहज आख्यान शैली में लिखी यह किताब सैकड़ों दिलचस्प चरित्रों और गीता प्रेस की कहानी से लिपटी ढेरों उप-कथाओं से भरी हुई है. 


किताब की शुरूआत में ही लेखक 19वीं शताब्दी के आखिरी और 20वीं शताब्दी के शुरूआती दौर में ‘हिन्दी जन-क्षेत्र’ के उद्भव और विकास को रेखांकित करता है. इस दौर में हिन्दी, हिंदुओं की भाषा के रूप में सुदृढ़ हुई, मारवाड़ी धार्मिक पुण्यकर्म पर जोर बढ़ा, 1920 के दशक में बिहार और उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिकता की आग लहक उठी, कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेता गौ-रक्षा और ‘शुद्धि’ (जिसे आजकल ‘घर-वापसी’ कहा जा रहा है) के आंदोलनों की तरफ झुके. यही वह ‘हिन्दी जन-क्षेत्र’ था, जिसने गीता प्रेस जैसी संस्था के पैदा होने और फिर सफल होने में योगदान दिया.


दादरी (उत्तर प्रदेश), ऊधमपुर (कश्मीरद्ध, और शिमला (हिमाचल प्रदेश) में गौ-रक्षा के नाम पर निर्दोष लोगों को पीट-पीट कर मार डालने के इस दौर में अक्षय मुकुल की किताब हमें उन विमर्शों और ऐतिहासिक घटनाओं की झलक दिखाती है जिनपर चलते हुए हमारा समाज दादरी जैसी घटनाओं तक पहुंचा. आजाद भारत में ‘गौ-रक्षा’ की राजनीति को वैधता पहुंचाने में गीता प्रेस के योगदान के बारे मुकुल की किताब विस्तार से हमें बताती है. आजादी मिलने के ठीक पांच दिन पहले ‘गौ-वध विरोध दिवस’ मनाया गया, नवंबर, 1966 में दिल्ली में इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए कांग्रेस दफ्तर और संसद पर हिंसक प्रदर्शन, जिसमें आठ लोगों की जानें गईं, और यह सिलसिला आज भी जारी है. अति-रूढ़िवादियों से लेकर हिन्दू राष्ट्रवादियों और कांग्रेसी रूढ़िवादियों तक के लेखों को समेटे हुए 1945 में प्रकाशित ‘कल्याण’ के 663 पृष्ठों के भारी-भरकम ‘गौ अंक’ को खंगाालती हुई मुकुल की यह किताब बताती है कि आधुनिक  ‘हिन्दुत्व’ की परियोजना ने कैसे ‘वर्चस्व’ हासिल किया.


गीता प्रेस के कर्ता-धर्ता हनुमान प्रसाद पोद्दार के जीवन और व्यक्तित्व के बारे में मुकुल की किताब के विवरण विस्मयकारी हैं. किताब बताती है कि पोद्दार को नाना वृत्तियों और यहां तक कि परस्पर विरोधी प्रतिबद्धता के लोगों को  मित्रा बना लेने में निपुणता हासिल थी. पोद्दार उनकी विद्वता, उपलब्धियों और यश को पूर्णतः या अंशतः अपने इस्तेमाल में लाते थे और उनके आपसी विवादों और दुविधाओं को सनातन धर्म की अगुवाई वाले हिन्दू राष्ट्रवाद के लिए इस्तेमाल करते थे. बिड़ला, गोयनका और डालमिया जैसे बड़े मारवाड़ी व्यापारिक घरानों, महात्मा गांधाी और उनके विनोबा भावे, वियोगी हरि, लाल बहादुर शास्त्री और काका कालेलकर जैसे उनके अनुयायियों, मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन, सम्पूर्णानन्द, के एम मुंशी, राजेन्द्र प्रसाद और गोविंद वल्लभ पंत सरीखे कांग्रेस के भीतर के दक्षिणपंथी नेताओं और एम एस गोलवलकर, महंत दिग्विजयनाथ, प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, स्वामी करपात्री, बाबा राघव दास, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दक्षिणपंथी नेताओं के बहुरंगी विस्तार से पोद्दार के संबंध और सफल रिश्ते थे. इन सभी लोगों ने गीता प्रेस से अपने सम्बन्धों के अनुरूप मौके-बमौके से ‘कल्याण’ के लिए लिखा. ‘कल्याण’ और ‘कल्याण कल्पद्रुम’ में लिखने वालों की सूची देखिये - इसमें 20वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के बौद्धिकऔर राजनैतिक इतिहास के सभी गणमान्य लोग शामिल हैं. इस सूची में भूपेन्द्र नाथ सान्याल और राधा कुमुद मुखर्जी जैसे इतिहासकार, राधा कमल मुखर्जी जैसे समाजवेत्ता, सत्येंद्रनाथ सेन, एस राधाकृष्णन, जी एन झा जैसे विद्वान, सुनीति कुमार चटर्जी और रघुवीर जैसे भाषाविद, ओटो श्रेडर, ई पी होरविट्ज, एनी बेसेंट, गोपीनाथ कविराज, साधु वासवानी, निकोलस रोरिख, जॉर्ज अरुंडेल, सी एफ एंड्रूज जैसे भारतविद और आध्यात्मिक, सी वाई चिंतामणि, पट्टाभि सीतारमैया, सी राजगोपालाचारी जैसे विद्वान राजनेता, न्यायमूर्ति के एन काटजू, के एम झावेर, पारसी लेखक फिरोज सी दवार, मुस्लिम विद्वान मोहम्मद सैयद हाफिज के साथ नारदेव शास्त्री वेदतीर्थ, चंद्रकरण शारदा, निर्मल चन्द्र चटर्जी, एन सी केलकर और नारायण भास्कर खरे जैसे अति दक्षिणपंथी लेखकों की जमात शामिल थी.


हालांकि गीता प्रेस या पोद्दार को कभी भी हिन्दी साहित्य में तनिक भी महत्वपूर्ण नहीं माना गया, पर पोद्दार, स्वाधीनतापूर्व हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों से ‘कल्याण’ में लिखवाने में सफल हुए. इनमें से कुछेक ने एक या दो बार ही लिखा, कुछ ने अनिच्छापूर्वक लिखा, पर बहुतेरे लेखक लगातार ‘कल्याण’ के लिए लिखते रहे. बनारसी दास चतुर्वेदी, हरिऔध, अंबिकादत्त बाजपेयी, रामनरेश त्रिपाठी, पद्म सिंह शर्मा, महावीर प्रसाद द्विवेदी, पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल, बद्रीनाथ भट्ट, गुलाबराय, गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, बाबूराव विष्णु प्रभाकर, किशोरीदास वाजपेयी, सेठ गोविंद दास, दिनेश नंदिनी डालमिया, इलाचन्द्र जोशी, रामचन्द्र शुक्ल, नन्द दुलारे वाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, शिवप्रसाद गुप्ता, प्रेमचंद, निराला, पंत और हरिवंशराय बच्चन ‘कल्याण’ के लेखकों की सूची में शामिल हैं. ये सभी लेखक अंततः विकसित हुई गीताप्रेस की विचारधारात्मक चैहद्दी के भीतर नहीं थे, पर पोद्दार ‘ऐसे किसी भी आदमी तक पहुंच जाते थे जो उनकी सुगठित वैचारिकी के किसी भी हिस्से में फिट हो सके’. जाने-माने कला स्कूलों में महान उस्तादों से दीक्षित सत्येन्द्रनाथ बनर्जी, शारदाचरण ऊकील, डी डी देवलालिकर, कानु देसाई, कुमार मित्रा, जगन्नाथ चित्रकार और भगवान दास जैसे चित्रकारों ने ‘कल्याण’ के लिए काम किया और चित्र बनाए. 


गीता प्रेस के इतिहास में 1940 का दशक युगांतकारी रहा. “1940 के दशक में आजादी और तत्पश्चात् विभाजन की संभावनाएं वास्तविक बन गईं, तब इस दौर में गीता प्रेस और ‘कल्याण’ पूरी तरह राजनीतिक बन गए और सांप्रदायिक नजरिए से गीता प्रेस घटनाओं की रपट और व्याख्या करने लगे. ...इसी दौर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व हिन्दू सभा से गीता प्रेस का दोस्ताना परवान चढ़ा, खुली साझेदारियां हुईं. ...यह दौर खतरा उठाते हुए गीता प्रेस के निर्दिष्ट मिशन, भक्ति-ज्ञान-वैराग्य प्रसार, के बदले जाने का था. गीता प्रेस ने अब हिंसा, प्रतिहिंसा, धमकी आदि के साथ ही 1940 के दशक की अनिश्चितता को बढ़ाने वाली हर चीज का नया सुर साध लिया.” (पृष्ठ 234-235),  ‘कल्याण’ के लेखों में हिन्दू महिलाओं के बलात्कार और उत्पीड़न की कहानियां छपने लगीं और इस पूरी हिंसा का जिम्मेवार एकतरफा मुसलमानों को ठहराया जाने लगा. अपने लेखों में पोद्दार हिंदुओं को आत्मरक्षा दस्ते तैयार करने का उपदेश देने लगे, मुसलमानों द्वारा की गई हिंसा के प्रतिशोध में हिन्दू हिंसा को जायज ठहराने लगे, नोआखली की यात्रा, ‘हरिजनों’ के मंदिर प्रवेश, अस्पृश्यता के खात्मे और अंतरजातीय विवाह जैसे मुद्दों पर महात्मा गांधी की आलोचना करने लगे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रशंसा में पन्ने रंगने लगे. पोद्दार ने आजाद भारत की हिन्दू बहुसंख्या के लिए एक बारह सूत्रीय कार्यक्रम भी इसी दौर में लिखा. जून 1947 में ‘कल्याण’ में गोलवलकर का लेख छपा जिसमें हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रयासों की खिल्ली उड़ाई गई थी. संघ-प्रमुख से पोद्दार की ऐसी प्रगाढ़ मैत्री थी कि फ्गांधी की हत्या में कथित सहभागिता के आरोप में गिरफ्तार गोलवलकर जब छूटे, तब 1949 में बनारस के टाउन हाल में आयोजित उनके स्वागत समारोह की अध्यक्षता पोद्दार ने ही की”. (पृष्ठ 183)


16 अगस्त, 1946 को मुस्लिम लीग ने सीधी कार्यवाही दिवस का आह्वान किया. इस दिन और इसके बाद कलकत्ते में हिंसा भड़क उठी. पोद्दार ने नवंबर 1946 में इस पर एक लेख लिखा. “पोद्दार के कलकत्ता वासी कुछ मित्रों ने चिन्हित किया कि उनके लेख में वर्णित बहुत सारी हिंसात्मक घटनाएं हुई ही नहीं थीं.” (पृष्ठ 236). दिसंबर 1946 का अंक, जिसमें ‘हिन्दू क्या करें’ शीर्षक एक भड़काऊ लेख छपा था और ‘मालवीय अंक’ को तत्कालीन उत्तर प्रदेश व बिहार सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया. पर तब तक ‘हिन्दू क्या करें’ की गीता प्रेस से छपी लाखों प्रतियां अलग पुस्तिका के रूप में वितरित हो चुकी थीं.


चार वर्णों व आश्रमों, शुद्धता और अपवित्राता के विचार का कट्टर समर्थन, मुसलमानों को ‘बर्बर’ बताते हुए उनका पूरी तरह ‘अन्यकरण’, अंबेडकर और हिन्दू कोड बिल का कट्टर विरोध, इसकी मुस्लिम लॉ से तुलना करना और इस विधेयक को हिन्दू समाज पर मुसलमानों का हमला मानना, सगोत्रा और अंतरजातीय विवाहों का विरोध, हिन्दुस्तानी भाषा के विचार का विरोध और हिन्दी को हिंदुओं की भाषा बताना, गौ-रक्षा की राजनीति में बढ़-चढ़कर की अगुवाई, ईसाई मिशनरियों के खिलाफ विश्व हिन्दू परिषद से साठ-गांठ, साम्यवाद और धर्मनिरपेक्षता की निंदा करना, राम व कृष्ण जन्मभूमि अभियानों में सक्रिय भागीदारी और हिंदूवादी ताकतों का चुनावी सहयोग, गीता प्रेस और ‘कल्याण’ की राजनैतिक-विचारधारात्मक यात्रा को चिन्हित करने वाले बिन्दु यही हैं.


मुकुल की इस किताब में गीता प्रेस की नैतिक दुनिया का ढांचा भी विस्तार से दर्ज है. गीता प्रेस का यह नैतिक ढांचा महिलाओं के यौन-जीवन पर कठोर बन्दिशें लगाकर उनकी ‘शुद्धता की रक्षा’ चाहता है, महिलाओं के पतियों, परिवार और लड़कों के प्रति कर्तव्य निर्धारित करता है, उनके लिबास निर्धारित करता है, महिला मुक्ति को नैतिक पतन मानते हुए उसका विरोध करता है, विधवा विवाह का विरोध करता है, महिलाओं को नसीहत देता है कि वे अपने को पत्नी और मां की भूमिका तक सीमित रखें, मुस्लिम आबादी के बढ़ने का इलाम-विरोधी उन्माद फैलाते हुए गर्भ-निरोध और गर्भपात का विरोध करता है. साथ ही सनातन धर्म के निर्देशानुसार महिलाओं के लिए नैतिक और धार्मिक शिक्षा देने के लिए विस्तृत साहित्य छापता है.


हालांकि जो भी उनकी ‘सुगठित वैचारिकी के किसी भी हिस्से में फिट हो सके’, ऐसे नाना प्रकार के दृष्टिकोणों को पोद्दार ‘कल्याण’ के मंच पर एक साथ लाने में प्रवीण थे, फिर भी महिला प्रश्न पर किसी विरोधी विचार के लिए ‘कल्याण’ में जगह नहीं थी. “... उस समय की दो महत्त्वपूर्ण हिन्दी लेखिकाओं, सुभद्रा कुमारी चौहान और महादेवी वर्मा को ‘कल्याण’ में आदर्श महिला या लेखिका, किसी रूप में जगह नहीं मिली.” (पृष्ठ 390). यही सब तो हम आज के भारत में देख रहे हैं -  नैतिक पहरेदारी, ऑनर किलिंग, हिन्दू महिलाओं को दस बच्चे पैदा करने का निर्देश आदि, आदि. गीता प्रेस की कल्पना की दुनिया यही है.


मुकुल ने पिछले आठ दशकों से पीढ़ी दर पीढ़ी लाखों घरों में पहुंचे गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित विपुल साहित्य का सर्वेक्षण और विश्लेषण किया है. पहले गीता प्रेस के बारे में आम धारणा यह थी कि उसने गीता, रामचरितमानस, महाभारत, रामायण, पुराण, उपनिषद और धर्मशास्त्रा के ग्रन्थों को लोगों के बीच लोकप्रिय बनाया, पर ‘कल्याण’ और ‘कल्याण कल्पतरु’ पत्रिकाओं, खासकर उनके ‘मानस अंक’, ‘गौ अंक’, ‘नारी अंक’, ‘हिन्दू संस्कृति अंक’, ‘बालक अंक’, ‘शिक्षा अंक’, ‘भक्ति अंक’, ‘उपासना अंक’, ‘धर्म अंक’,  ‘परलोक और पुनर्जन्म अंक’, ‘सदाचार अंक’ आदि विशेषांकों पर मुकुल का गहन शोध व बारीक विश्लेषण बताता है कि कैसे गीता प्रेस पीढ़ियों से धर्म की राजनीति और हिन्दुत्व की विचारधारा का पोषण करता रहा है. उनकी किताब के दो अध्याय- ‘फूट सोल्जर ऑफ संघ परिवार’ और ‘रिलीजन ऐज पॉलिटिक्स - पॉलिटिक्स ऑफ रिलीजन’, गीता प्रेस परिघटना के इसी पहलू पर केन्द्रित हैं. इस किताब की मार्फत मुकुल बहुत अच्छी तरह से दिखा पाते हैं कि पुनराविष्कृत ‘सनातन धर्म’ की दार्शनिक आधारभूमि पर ही हिंदुत्त्व की राजनीति का पूरा ढांचा टिका हुआ है. दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी जैसे तर्कवादियों को ये ताकतें खतरा क्यों मानती हैं, उनकी हत्या क्यों कर देती हैं, इस सवाल का जवाब शायद हमें उपरोक्त बात से मिल सकता है.


अक्षय मुकुल ने वित्तीय, सामाजिक सेवा गतिविधि, वस्त्रा और चप्पल-जूता निर्माण की आनुषंगिक गतिविधि, मजदूर विक्षोभ, संपादकीय नीति, दोनों पत्रिकाओं के विशेषांक, महत्वपूर्ण लोगों के आपसी संबंध, समय-समय पर होने वाले घोटाले, संपत्ति विवाद आदि सभी पहलुओं से गीता प्रेस की गहरी पड़ताल की है. 


जो लोग आज के भारत, खासकर मोदी राज में चल रहे बेकाबू घृणा अपराधों की ऐतिहासिक-तार्किक पृष्ठभूमि जानना चाहते हैं,  उन सबको यह किताब जरूर ही पढ़नी चाहिए.